08 May 2007

फागुन की फाँस - {कहानी}

फागुन की फाँस [ कहानी ] –खालिद अहमद क़ुरैशी



दिन का उजाला शाम की लाली में ढल रहा था । प्रकृति, चित्रकार के केनवास सी हो चली थी । वैसे भी वसंत की शामों का अपना एक अलग ही निराला स्वरूप होता है। हम दोनों मेरे घर के पीछे फूलों से लदे छोटे से आंगन में बैठे एक अनजान सफर की उड़ान भर रहे थे। वह हमेशा की तरह गर्मी की छुटटियां मनाने हमारे यहां आई हुई थी। पारिवारिक प्रगाढ़ता के कारण हमारा एक दूसरे के यहां आना जाना लगा ही रहता था। लेकिन मधूलिका मेरे घरवालों के लिए जहां एक बहुत अच्छी मेहमान होती वहीं मेरे लिए एक खुशी की तरह आती। उसके प्रति मेरे मन में स्वाभाविक रूप से एक अलग कशिश थी जो बार-बार मुझे उसके करीब ले जाती। वह भी शायद इससे अंजान न थी ।

हमारे घर के आंगन में बनी इस छोटी सी बगिया को पिताजी ने रिटायर होने के बाद बड़े जतन और मेहनत से अपने परिवार की तरह सींचकर बनाया था। तनाव के क्षणों में अक्सर अपनी एकाकी प्रवृत्ति के चलते उनका ज्य़ादातर समय इसी बगिया के लिए होता। मैं उनकी इस रुचि को देखकर सोचता था कि अगर आदमी की प्रवृत्ति रचनात्मक हो तो सभी को सुख देती है, अन्यथा कष्ट को ही जन्म देती है ।

कई दिनों के इन्तज़ार के बाद मेरे जीवन में वो क्षण आ ही गया। मैं और मधुलिका इस आंगन की बैंच पर साथ थे। उसने हल्के वसंती रंग का परिधान पहने हुए था जिस पर बने हुए पीले रंग के खूबसुरत फूल उसकी सादगी में चारचांद लगा रहे थे। वह एकदम शांत भाव से बैठी अपने पैर के दायें अंगूठे से जमीन पर जाने उसके मन की कौन सी भावना को उकेरकर लिपिबद्ध कर रही थी। हवा के मंद मंद झोंके उसके गालो पर बिखरी हुई लटों से अठखेलियां कर रहे थे। वह बार-बार उन्हें हटाने की कोशिश करती लेकिन उसकी लटें एक नटखट बच्चे सी उसके कपोलों से शरारत किए जा रहीं थीं। मधूलिका तीखे नैन-नक्श और छरहरी काया की स्वामिनी थी। किंचित गेहुंआ रंग ली हुई उसकी काया, किसी को भी क्षण भर के लिए मंत्रमुग्ध कर सकती थीं। मैं भी उसके इस मनभावन रूप को निहारे जा रहा था। हालांकि अगले ही क्षण मुझे लगा कि अगर वो मुझे देखेगी तो क्या सोचेगी ।
पिछले कई दिनों से मैं इसी उधेड़बुन में था कि उसके सामने अपने मन की बात कैसे रखूं क्योंकि आज से पहले ऐसा कोई क्षण आया ही नहीं था कि मैं अपने मन की बात उसके सामन रख सकूं । मेरे और उसके परिवार के निकट होने के बावजूद कई ऐसी विड्ढमताएं थीं जिन्हें पाटा जाना संभव नहीं था। वह एक सम्पन्न घर की इकलौती लड़की थी उसने कभी किसी कमी को नहीं देखा था उसकी तुलना में मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से था और पिताजी की पूंजी के रूप में मेरे पास सिर्फ उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा, उनके संस्कार और अच्छी शिक्षा थी। पिताजी की अल्पआय एवं उनके कंधों पर मेरी दो बहनों की शादी के भार ने उन्हें जीवन की कई विडम्बनाओं से दो-चार करवाया था । पिताजी की यही पीड़ा कभी-कभी उनकी इन पंक्तियों से झलक जाती थी कि - "ये बात और है कि तामीर (निर्माण) न हो उनकी यूं तो हर ज़हन में ताज़महल हुआ करते हैं ।"
मेरे मन में जहाँ एक तरफ मधु की चाह होती, वहीं दूसरी ओर हमारी आपसी विड्ढमताएं एक विड्ढधर की तरह फन फैलाए सी लगती । इन सबके चलते मेरे साहस की नाव साहिल पर पहुंचने के पहले ही हचकोले सी खाने लगती। तथापि मैं ऐसे सुनहरे पलों को खोना नहीं चाहता था। यद्यपि मैं अन्तरमन की आवाज़ को दबाने का प्रयास करता तो वो और अधिक गूंजित होकर कहने लगती कि- प्रियेश, अगर आज तुम इस लडकी के सामने मन की बात नहीं रख सके तो जीवन में दोबारा कभी नहीं रख पाओगे। मनुष्य के जीवन में अवसर केवल एक बार ही आता हैं और अक्ल़मंद वही होता है जो समय रहते इसका पूरा लाभ उठा, ले, वरना पूरे जीवन पछताना पड़ता है।
एक लम्बी नीरवता को तोड़ते हुए मैंने साहस कर पूछा- मधूलिका तुम्हें फाल्गुन मास और इसमें गाये जाने वाले फाग गीत कैसे लगते है ? होली के दिन उड़नेवाले रंग और अबीर मानों पूरे मौसम की छटा को ही बदलकर रंगमयी कर देते हैं, ऐसा लगता है मानो किसी चित्रकार की तूलिका ने केनवास पर न जाने कितने सुंदर रंग एकसाथ बिखेर दिए हों। यदि जीवन में तीज-त्यौहारों का रंग और खुशी न होती तो सबकुछ कितना नीरस और बेरंग सा होता। कुछ देर की खामोशी के बाद उसने धीमे स्वर में कहा- हां ! मुझे भी ये सब बहुत भाता है बशर्ते यह मर्यादा और शालीनता की सीमा में बगैर फिजूलखर्ची के किया जाए। उसकी नज़रें उसके पैर के अंगूठे पर केन्द्रीत थीं और वो अपने ही शब्दों में शायद कहीं खो सी गई थी। फिर जब वो एक तवील खामोशी के बाद भी नि:शब्द रही तो मैंने ही वातावरण की खामोशी को तोड़ते हुए उसे स्वर देने का प्रयास किया - मधु मैं तुमसे बहुत दिनों से कुछ कहना चाह रहा था लेकिन ऐसा कोई पल इससे पहले आया ही नहीं कि मैं तुमसे अपने मन की बात कह सकूं, गर मैंने यह बात आज न कही तो जीवन भर सब कुछ रीता सा रह जाएगा। हालांकि मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूं कि तुम्हें पाने की लालसा तो कोई भी कर सकता है क्योंकि ईश्वर ने तुम्हें वो सब कुछ दिया है जिसकी हर इंसान मन में तमन्ना रखता है। मैं यह भी जानता हूं कि तुम्हारे सपनों का दायरा भी मेरी कल्पना से हटकर हो सकता है और तुम अपने भविष्य के लिए न जाने कितने सपने देख रही होगी। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि तुम जो सोचोगी वह संभाव्य है किंतु मैं जो सोचता हूं वह सब मेरे इस जीवन में संभव है या कभी हो सकेगा इन सब बातों का जवाब केवल तुम्हारे पास है और तुम्हें पूरा अधिकार है कि तुम वही फैसला करों जो तुम्हें सुभाये।

मैं अपने कहे एक एक वाक्य का अर्थ उसके चेहरे पर पड़ी लकीरों में खोजने लगा। मैंने पुन: अपने आप पर पूरा संयम रखते हुए नपे-तुले शब्दों में केवल इतना ही कहा कि- मधु, मैं तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी के रूप में देखना चाहता हूं बाकी तुम चाहो अपने बारे में कोई भी फैसला कर सकती हो। मैने तरकश से अपने मन की भावना के तीर उसकी ओर छोड़ दिए। मेैंने महसूस किया कि मेरे इन शब्दों से उसके गालों की लालिमा और गहरा गई थी और वो कुछ देर अवाक् सी सोचने के बाद बिना कुछ कहे अन्दर चली गई।

आसमानी रंग स्याह पड़ चुका था, रात ने शाम को पूरी तरह अपने काले आवरण से ढक लिया था। मैं उसके जाने के बाद बहुत देर तक बगीचे में अकेला बैठा अपने और उसके बारे में सोचे जा रहा था कि उसकी इस खामोशी का क्या अर्थ निकालूं क्योंकि कहते हैं कि नारी के मन की थाह लेना किसी के वश में नहीं फिर मैं क्या हूं? फिर कुछ देर सोचने के बाद मैंने अपना सर झटकते हुए अपने आप से ही बुदबुदा कर कहा- मेरे मन में जो उसके प्रति था मैंने उसके सामने रख दिया अब वो मेरी भावनाओं को कितना समझती है, ये ईश्वर ही जाने !

समय अपनी गति से आगे बढ़ता चला गया, उसके साथ बिताए पल, पर लगाए कैसे उड़ गए पता ही न चला और उससे विदा होने का समय आ गया। उसके साथ बिताये हर एक लम्हे को मैंने अपने मन में एक संस्करण की तरह संजोकर रख लिया था। मैं मन में सोच रहा था कि क्या लोग ऐसे ही किसी अपने के प्रति आसक्त हो जाते हैं कि जीवन ही उनके बिना बेमानी सा लगता है।

मां ने मेरे मन की भावना को समझते हुए स्वयं ही कहा- प्रियेश मधु को स्टेशन छोड़ आओ तुम्हारे पिताजी को आज बैंक का जरूरी काम है इसलिए वो नहीं जा पायेंगे। मुझे तो मानो मन मांगी मुराद मिल गई, मैं खुशी से फूला नहीं समा रहा था मुझे लगा शायद वो भी यही चाह रही थी लेकिन नारी कहां इतनी सहजता से उसकी भावनाओं को शब्दों में बुनती हैं।

स्टेशन पर वो बार-बार बिसलरी की बॉटल को अपने सूखे होठों से लगाकर ठण्डे पानी से अपनी प्यास बुझा रही थी। वो मेरी ओर देखने का प्रयास करती लेकिन जैसे ही मैं उसकी ओर देखता तो वो शर्म के मारे अपना
चेहरा दूसरी ओर कर लेती। किन्तु उसके चेहरे के हाव भाव उसकी मनोदशा का बखान कर रहे थे। कुछ ही देर बाद ट्ेन के जाने का समय हो गया मैंने उसका केरी बेग हाथों में ले उसे कम्पार्टमेट के अंदर जाने का इशारा किया और वो भारी मन लिए अन्दर जाने लगी। अगले ही पल वो खिड़की के पास बैठ गई और उसने बड़े अपनापन लिए हुए लहजे में कहा कि गाड़ी की विसिल हो रही है आप नीचे उतर जाईए। मैंने भी उसकी भावना का आदर किया और बाहर आ गया। स्टेशन के इतने भीड़ भरे माहौल में भी मुझे उसके अलावा कुछ न सूझ पड़ रहा था। ऐसा लगता कि समय यहीं आकर ठहर जाए और वो कभी भी मुझसे दूर न जाए बस हमेशा ऐसे ही मेरे सामने रहे। वह खिड़की पर अपनी कलाई के उपर ठोड़ी रख गुमसुम सी रेल्वे की पातों को निहारते हुए जाने कौन से विचारों में खोई हुई थी कि अचानक बजी विसिल ने उसकी तन्द्रा को तोड़ा और गाड़ी आहिस्ता आहिस्ता अपने गन्तव्य की ओर खिसकने लगी। मैंने देखा जैसे ही उसने विदाई स्वरूप अपना हाथ मिलाने के लिए ही मेरी ओर बढ़ाया ही था कि बहुत रोकने पर भी उसकी आंखें झील सी छलछला पड़ीं। मैं भी उसे देख असंयत सा हो गया और मेरी आंखों की कोरे भी उसी की भांति गीली हो आई थीं। सहसा उसने अपने हाथ में पकड़ा रूमाल मेरी ओर बढ़ाते हुए बुझे स्वर मेें कहा- इसे हमेशा अपने पास सम्हाल कर रखना ये तुम्हें इन लम्हों के साथ सदा मेरी याद दिलाता रहेगा ! अल्विदा !

मैंने सोचा था मैं उसकी तरफ से शायद निरूत्तर ही रह जाऊंगा। लेकिन आज उसके इन शब्दों ने उसके मन की सारी भावनाओं को खोल के रख दिया था। गाड़ी अब तक पूरी रफ्तार पकड़ चुकी थी उसका हाथ शून्य में निरन्तर हिलते हुए मुझसे विदा ले रहा था । मैं उसके शब्दों को मन में लिए रूमाल को मुट्ठी में भींचते हुए अभिभूत हुए जा रहा था मानो रूमाल नहीं पूरा जहान मेरे हाथों में आ गया हो। रेल की पातों पर उसकी गति से मानों एक रेखा सी खींंच र्दी थी और ऐसा लग रहा था कि मेरे हृदय पर किसी ने जीवन के हस्ताक्षर कर दिए हों .....!

उसके जाने के कुछ दिनों बाद उसका पत्र मिला। इसमें उसने अपने मन की हर बात को मेरे सामने खुली किताब की तरह रख दिया था। मैंने जब इसे पढ़ा तो यकीन ही नहीं हुआ मैं अपने जीवन की उस खुशी को पा लूंगा जिसकी मैंने हर लम्हा कल्पना की थी। उसके खत को न जाने मैंने कितनी बार पढ़ा और बेखुदी में लगातार पढ़ता ही चला गया हर बार ये मुझे नया सा लगता।
एक लम्बे अन्तर्द्वंद्व के बाद मैंने अपना प्र्र्रस्ताव घरवालों के सामने रख दिया और मां को मनाया कि वो उसके घरवालों से मिलकर मेरे लिए मधु का हाथ मांगे। मां की बात को पिताजी भी कभी नहीं टालते थे। इसी के चलते कुछ दिनों बाद घरवाले मेरा प्रस्ताव लेकर मधु के यहां गये। लेकिन जैसा कि बड़े लोगों का अमूमन स्वभाव होता है, उन लोगों ने तुरन्त जवाब न देते हुए कहा कि वे इस बारे में आपस में मंत्रणा कर जैसा भी होगा हमें पत्र के ज़रिये इत्तिला करेंगें। मां को भी मधु बहुत अच्छी लगती थी वो उसे खोना नहीं चाहती थी इसीलिए मां अक्सर कहा करती थी कि वो लोग बड़े भाग्यशाली होंगे, जिस घर की ये शोभा होगी। इसीलिए वो बड़े अरमानों के साथ प्रस्ताव लेकर गयी थी। वापसी पर मैंने उसके चेहरे पर पड़ी अनुभवों की लकीरों पर उसकी खिन्नता के भावों को पढ़ने की काशिश की, जो किसी अनहोनी की ओर इशारा कर रहे थे। मां के मन की खामोशी मुझे तुफान के पहले सी खामोशी लगी वो किसी से बात नहीं कर रही थी। मैंने आशंकित भाव से उससे पूछ ही लिया मां तू इतनी चुप क्यों है ? मां ने चुप्पी तोड़ते हुए मेरे सवाल पर ही उसका सवाल धरते हुए कहा कि तू क्या सोचता है, वो तेरे बारे में सोचेंगे !

बहुत दिनों बाद मधु के पिता का एक संक्षिप्त सा पत्र मिला जिसमें उन्होंने हमारे पुराने संबंधों एवं परिवार का मान रखते हुए ऐसा प्रस्ताव रखा जो हम लोगों के लिए बिल्कुल अप्रत्याशित था। उनके इस बेहुदा प्रस्ताव से मेरे तो मानों पांव के नीचे से जमीन ही खिसक गई हो। मुझे तो कम से कम मधु से ऐसी आशा नहीं थी । मैं अपनी मां को बेहद चाहता था और वो भी घर का छोटा होने के कारण मुझसे कुछ ज्यादा ही स्नेह करती थी, वो मुझे एक क्षण के लिए भी दुखी नहीं देख सकती थी। लेकिन उसके चाहने या न चाहने से क्या होता है, होता तो वही है जो विधि ने हमारे लिए पहले से ही रच रखा होता है। यदि ऐसा न होता तो शायद ही दुनिया में कोई दुखी होता क्योंकि कौन से मां-बाप अपने बच्चों के दामन को संसार की हर खुशी से सराबोर करना नहीं चाहते। उन लोगों ने मधु का हाथ मेरे हाथ में इस शर्त पर देने की बात कही थी कि मैं उन्हीं के शहर में रहकर मधु के पिताजी के कारोबार में उनका हाथ बटाऊं। जिसका सीधा सा अर्थ था कि मैं अपना घर, अहम और अपना अस्तित्व सब कुछ छोड़कर केवल उन लोगों का ही होकर रह जाऊँ। जो मेरे लिए असंभव था। मैं उनके इस बेहुदा प्रस्ताव के बाद बेहद खिन्न रहने लगा। मैं अपने घरवालों को छोड़कर, मधु के लिए सबकुछ छोड़ सकता था। जिन लोगों ने मेरे लिए सब कुछ किया भला मैं उन्हें कैसे छोड़ सकता था! उन लोगों को भी ऐसा प्रस्ताव रखने के पहले सोचना था। इंसान की हैसियत उसके धन से नहीं उसके मन और आदर्शो से तौलना चाहिए। मैं उनके इस प्रकार के रवैये से दुखी एवं आक्रेाशित था। इसके बाद मुझे सब कुछ बेहद नीरस और बेमानी सा लगने लगा था न ऑफिस में और न ही घर पर मेरा मन लगता। कभी कभी इंसान की जिन्दगी में खुशियां जितनी तेजी से आती हैं, लौट भी वैसे ही जाती हैं।

कुछ दिनों बाद मेरे नाम उसका पत्र आया। इस पत्र को पढ़ने का मन ही न कर रहा था फिर भी बुझे हुए मन से मैंने उसे खोल एक सांस में ही पढ़ डाला, उसमें जो कुछ था वो मेरे लिए कल्पनातीत और कष्टदायी था, मधुलिका का विवाह उसकी उम्र से काफी बड़े एक साफ्टवेयर इंजीनियर से हो रहा था। जैसा कि आम तौर पर होता है उसने भी मुझे बेहद दिलासा और कसमें देते हुए अपना अतीत भूल जाने का कहा। पत्र के साथ जैसे मेरी हंसी उड़ाता हुआ उसकी शादी का कार्ड भी रखा था। जो मेरे जीवन की खुशी के अध्याय पर विराम चिह्न जैसा था। इस सारे घटनाक्रम के चलते चलाते समय अपनी नियत गति से आगे बढ़ा चला जा रहा था। एक आम अंग्रेजी की कहावत "टाइम इज़ ग्रेट हीलर" की तर्ज पर, समय मेरे हर ज़ख्म को धीरे धीरे भर ही रहा था कि अचानक एक दिन वो मुम्बई के दादर स्टेशन पर मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैं हैरत से उसे देखता ही रह गया। हालांकि समय ने उसके चेहरे पर उसकी हर त्रासदी के निशानों की मोहर लगा दी थी, वो अपने दो बच्चों को साथ लिए शायद मुम्बई से कहीं बाहर जा रही थी। इस बहुत ही क्षणिक मुलाकात में वो मुझसे बेहद अपनत्व के साथ मिली। उसने मेरे और घरवालों के बारे मेंे बड़ी जिज्ञासा के साथ बड़े विस्तारपूर्वक पूछा। मैंने भी बड़ी सरलता से उसके सारे सवालों का जवाब दे दिया कि मैं यही मुम्बई में जॉब कर रहा हूं वगैरह वगैरह। मैंने उसे यह भी बताया कि उसके जाने के बाद मैंने वो सबकुछ छोड़ दिया जो उससे या उसकी यादोंे से वाबस्ता थां। हां अभी शादी तो नहीं की है लेकिन जीवन में तुम जैसी कोई लड़की फिर टकरा गई तो नये सिरे से सोचूंगा। उसने आज भी मुझ पर भरोसा करते हुए एक अच्छे दोस्त की तरह उसके बारे में वो सब कुछ बताया जो कोई किसी अपने को बताता है। इसके बाद वो ये वायदा करके चली गई कि वो मेरी शादी में बुलाने पर जरूर आएगी।

उससे मुलाकात के कुछ दिनांे बाद संयोग से होली की छुट्टी पर मैं अपने घर आया हुआ था। मेरे आने से मां बेहद खुश थी मुझे शादी के बंधन में बांधने की योजना बनाा रही थी। मैंने अपनी पीड़ा को उससे छिपाते हुए उसका मन रखते हुए हंसते हुए कहा- मां मुझसे कौन शादी करेगा। पहले ही तो मैं अस्वीकारा जा चुका हूं। मां ने अपनी अन्तरपीड़ा को बड़ी सहजता से दबाते हुए उसके चेहरे पर एक कृत्रिम मुस्कान लाते हुए कहा- प्रियेश, भला तुझे कोैन नापसंद करेगा तूने तो केवल हमारी खुशी, हमारे स्नेह के प्रतिफल में अपने सारे अरमानों को एक तरफ रख दिया। मुझे हमेशा तुझ पर गर्व रहा है और रहेगा। मां की यही बातें मेरे जीवन का सम्बल रही हैं।
टेशू के फूलों का केसरिया रंग चारों ओर छा चुका था प्रकृति जैसे फागुन मास का स्वागत, धरती को एक दुल्हन की तरह सजाकर करना चाहती हो। ये सब देख मेरी आंखों के आगे मेरा पूरा अतीत छाने लगा। आज होली होने से सारा माहौल रंगमयी था । फाग के गीतों की धुन से वातावरण गूंज रहा था। पुराने दोस्तों का सुबह से मेरे घर पर तांता सा लगा हुआ था। लेकिन मैंने अपने सभी दोस्तों से क्षमा मांगी कि मैं बहुत दिनों बाद घर आया हूं इसलिए मैं आज का दिन उन्हीं के साथ बिताउंगा। सच तो यह था कि में आज मैं घर पर रहकर अपने अतीत के उन पलों में खो जाना चाहता था जोे पल होली के दिन मधु ने मेरे साथ, मेरे घर पर गुजारे थे। हालांकि मैंने कहीं पढ़ा था कि- "हमारा अतीत उतना कष्टदायी नहीं होता जितना कि उसका विचार।" लेकिन ये पीड़ा भी मुझे अपनी सी लगती है इसमें अगर एक चुभन है तो कहीं न कहीं थोड़ी सी मिठास भी है। हालांकि इतने बरस बीत जाने के बाद भी फागुन में उसकी यादें एक फांस की तरह चुभती हैं। कुछ भी हो जीवन तो अपनी गति से चलता ही रहता है, केवल इसके पात्र बदलते रहते हैं । मेरे इन्हीं विचारों में गुलज़ार जी की फिल्म "दिल से" में रेत पर लिखी गई उनकी गहरी सोच, याद हो आती है कि- कुछ लोग रेत पर लिखे नामों की तरह होते हैं, हवा का एक ही झोंका उन्हें उड़ा ले जाता है ।


–खालिद अहमद क़ुरैशी
निजी सचिव
प्रतिभूति कागज कारखाना होशंगाबाद

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