08 May 2007

फागुन की फाँस - {कहानी}

फागुन की फाँस [ कहानी ] –खालिद अहमद क़ुरैशी



दिन का उजाला शाम की लाली में ढल रहा था । प्रकृति, चित्रकार के केनवास सी हो चली थी । वैसे भी वसंत की शामों का अपना एक अलग ही निराला स्वरूप होता है। हम दोनों मेरे घर के पीछे फूलों से लदे छोटे से आंगन में बैठे एक अनजान सफर की उड़ान भर रहे थे। वह हमेशा की तरह गर्मी की छुटटियां मनाने हमारे यहां आई हुई थी। पारिवारिक प्रगाढ़ता के कारण हमारा एक दूसरे के यहां आना जाना लगा ही रहता था। लेकिन मधूलिका मेरे घरवालों के लिए जहां एक बहुत अच्छी मेहमान होती वहीं मेरे लिए एक खुशी की तरह आती। उसके प्रति मेरे मन में स्वाभाविक रूप से एक अलग कशिश थी जो बार-बार मुझे उसके करीब ले जाती। वह भी शायद इससे अंजान न थी ।

हमारे घर के आंगन में बनी इस छोटी सी बगिया को पिताजी ने रिटायर होने के बाद बड़े जतन और मेहनत से अपने परिवार की तरह सींचकर बनाया था। तनाव के क्षणों में अक्सर अपनी एकाकी प्रवृत्ति के चलते उनका ज्य़ादातर समय इसी बगिया के लिए होता। मैं उनकी इस रुचि को देखकर सोचता था कि अगर आदमी की प्रवृत्ति रचनात्मक हो तो सभी को सुख देती है, अन्यथा कष्ट को ही जन्म देती है ।

कई दिनों के इन्तज़ार के बाद मेरे जीवन में वो क्षण आ ही गया। मैं और मधुलिका इस आंगन की बैंच पर साथ थे। उसने हल्के वसंती रंग का परिधान पहने हुए था जिस पर बने हुए पीले रंग के खूबसुरत फूल उसकी सादगी में चारचांद लगा रहे थे। वह एकदम शांत भाव से बैठी अपने पैर के दायें अंगूठे से जमीन पर जाने उसके मन की कौन सी भावना को उकेरकर लिपिबद्ध कर रही थी। हवा के मंद मंद झोंके उसके गालो पर बिखरी हुई लटों से अठखेलियां कर रहे थे। वह बार-बार उन्हें हटाने की कोशिश करती लेकिन उसकी लटें एक नटखट बच्चे सी उसके कपोलों से शरारत किए जा रहीं थीं। मधूलिका तीखे नैन-नक्श और छरहरी काया की स्वामिनी थी। किंचित गेहुंआ रंग ली हुई उसकी काया, किसी को भी क्षण भर के लिए मंत्रमुग्ध कर सकती थीं। मैं भी उसके इस मनभावन रूप को निहारे जा रहा था। हालांकि अगले ही क्षण मुझे लगा कि अगर वो मुझे देखेगी तो क्या सोचेगी ।
पिछले कई दिनों से मैं इसी उधेड़बुन में था कि उसके सामने अपने मन की बात कैसे रखूं क्योंकि आज से पहले ऐसा कोई क्षण आया ही नहीं था कि मैं अपने मन की बात उसके सामन रख सकूं । मेरे और उसके परिवार के निकट होने के बावजूद कई ऐसी विड्ढमताएं थीं जिन्हें पाटा जाना संभव नहीं था। वह एक सम्पन्न घर की इकलौती लड़की थी उसने कभी किसी कमी को नहीं देखा था उसकी तुलना में मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से था और पिताजी की पूंजी के रूप में मेरे पास सिर्फ उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा, उनके संस्कार और अच्छी शिक्षा थी। पिताजी की अल्पआय एवं उनके कंधों पर मेरी दो बहनों की शादी के भार ने उन्हें जीवन की कई विडम्बनाओं से दो-चार करवाया था । पिताजी की यही पीड़ा कभी-कभी उनकी इन पंक्तियों से झलक जाती थी कि - "ये बात और है कि तामीर (निर्माण) न हो उनकी यूं तो हर ज़हन में ताज़महल हुआ करते हैं ।"
मेरे मन में जहाँ एक तरफ मधु की चाह होती, वहीं दूसरी ओर हमारी आपसी विड्ढमताएं एक विड्ढधर की तरह फन फैलाए सी लगती । इन सबके चलते मेरे साहस की नाव साहिल पर पहुंचने के पहले ही हचकोले सी खाने लगती। तथापि मैं ऐसे सुनहरे पलों को खोना नहीं चाहता था। यद्यपि मैं अन्तरमन की आवाज़ को दबाने का प्रयास करता तो वो और अधिक गूंजित होकर कहने लगती कि- प्रियेश, अगर आज तुम इस लडकी के सामने मन की बात नहीं रख सके तो जीवन में दोबारा कभी नहीं रख पाओगे। मनुष्य के जीवन में अवसर केवल एक बार ही आता हैं और अक्ल़मंद वही होता है जो समय रहते इसका पूरा लाभ उठा, ले, वरना पूरे जीवन पछताना पड़ता है।
एक लम्बी नीरवता को तोड़ते हुए मैंने साहस कर पूछा- मधूलिका तुम्हें फाल्गुन मास और इसमें गाये जाने वाले फाग गीत कैसे लगते है ? होली के दिन उड़नेवाले रंग और अबीर मानों पूरे मौसम की छटा को ही बदलकर रंगमयी कर देते हैं, ऐसा लगता है मानो किसी चित्रकार की तूलिका ने केनवास पर न जाने कितने सुंदर रंग एकसाथ बिखेर दिए हों। यदि जीवन में तीज-त्यौहारों का रंग और खुशी न होती तो सबकुछ कितना नीरस और बेरंग सा होता। कुछ देर की खामोशी के बाद उसने धीमे स्वर में कहा- हां ! मुझे भी ये सब बहुत भाता है बशर्ते यह मर्यादा और शालीनता की सीमा में बगैर फिजूलखर्ची के किया जाए। उसकी नज़रें उसके पैर के अंगूठे पर केन्द्रीत थीं और वो अपने ही शब्दों में शायद कहीं खो सी गई थी। फिर जब वो एक तवील खामोशी के बाद भी नि:शब्द रही तो मैंने ही वातावरण की खामोशी को तोड़ते हुए उसे स्वर देने का प्रयास किया - मधु मैं तुमसे बहुत दिनों से कुछ कहना चाह रहा था लेकिन ऐसा कोई पल इससे पहले आया ही नहीं कि मैं तुमसे अपने मन की बात कह सकूं, गर मैंने यह बात आज न कही तो जीवन भर सब कुछ रीता सा रह जाएगा। हालांकि मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूं कि तुम्हें पाने की लालसा तो कोई भी कर सकता है क्योंकि ईश्वर ने तुम्हें वो सब कुछ दिया है जिसकी हर इंसान मन में तमन्ना रखता है। मैं यह भी जानता हूं कि तुम्हारे सपनों का दायरा भी मेरी कल्पना से हटकर हो सकता है और तुम अपने भविष्य के लिए न जाने कितने सपने देख रही होगी। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि तुम जो सोचोगी वह संभाव्य है किंतु मैं जो सोचता हूं वह सब मेरे इस जीवन में संभव है या कभी हो सकेगा इन सब बातों का जवाब केवल तुम्हारे पास है और तुम्हें पूरा अधिकार है कि तुम वही फैसला करों जो तुम्हें सुभाये।

मैं अपने कहे एक एक वाक्य का अर्थ उसके चेहरे पर पड़ी लकीरों में खोजने लगा। मैंने पुन: अपने आप पर पूरा संयम रखते हुए नपे-तुले शब्दों में केवल इतना ही कहा कि- मधु, मैं तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी के रूप में देखना चाहता हूं बाकी तुम चाहो अपने बारे में कोई भी फैसला कर सकती हो। मैने तरकश से अपने मन की भावना के तीर उसकी ओर छोड़ दिए। मेैंने महसूस किया कि मेरे इन शब्दों से उसके गालों की लालिमा और गहरा गई थी और वो कुछ देर अवाक् सी सोचने के बाद बिना कुछ कहे अन्दर चली गई।

आसमानी रंग स्याह पड़ चुका था, रात ने शाम को पूरी तरह अपने काले आवरण से ढक लिया था। मैं उसके जाने के बाद बहुत देर तक बगीचे में अकेला बैठा अपने और उसके बारे में सोचे जा रहा था कि उसकी इस खामोशी का क्या अर्थ निकालूं क्योंकि कहते हैं कि नारी के मन की थाह लेना किसी के वश में नहीं फिर मैं क्या हूं? फिर कुछ देर सोचने के बाद मैंने अपना सर झटकते हुए अपने आप से ही बुदबुदा कर कहा- मेरे मन में जो उसके प्रति था मैंने उसके सामने रख दिया अब वो मेरी भावनाओं को कितना समझती है, ये ईश्वर ही जाने !

समय अपनी गति से आगे बढ़ता चला गया, उसके साथ बिताए पल, पर लगाए कैसे उड़ गए पता ही न चला और उससे विदा होने का समय आ गया। उसके साथ बिताये हर एक लम्हे को मैंने अपने मन में एक संस्करण की तरह संजोकर रख लिया था। मैं मन में सोच रहा था कि क्या लोग ऐसे ही किसी अपने के प्रति आसक्त हो जाते हैं कि जीवन ही उनके बिना बेमानी सा लगता है।

मां ने मेरे मन की भावना को समझते हुए स्वयं ही कहा- प्रियेश मधु को स्टेशन छोड़ आओ तुम्हारे पिताजी को आज बैंक का जरूरी काम है इसलिए वो नहीं जा पायेंगे। मुझे तो मानो मन मांगी मुराद मिल गई, मैं खुशी से फूला नहीं समा रहा था मुझे लगा शायद वो भी यही चाह रही थी लेकिन नारी कहां इतनी सहजता से उसकी भावनाओं को शब्दों में बुनती हैं।

स्टेशन पर वो बार-बार बिसलरी की बॉटल को अपने सूखे होठों से लगाकर ठण्डे पानी से अपनी प्यास बुझा रही थी। वो मेरी ओर देखने का प्रयास करती लेकिन जैसे ही मैं उसकी ओर देखता तो वो शर्म के मारे अपना
चेहरा दूसरी ओर कर लेती। किन्तु उसके चेहरे के हाव भाव उसकी मनोदशा का बखान कर रहे थे। कुछ ही देर बाद ट्ेन के जाने का समय हो गया मैंने उसका केरी बेग हाथों में ले उसे कम्पार्टमेट के अंदर जाने का इशारा किया और वो भारी मन लिए अन्दर जाने लगी। अगले ही पल वो खिड़की के पास बैठ गई और उसने बड़े अपनापन लिए हुए लहजे में कहा कि गाड़ी की विसिल हो रही है आप नीचे उतर जाईए। मैंने भी उसकी भावना का आदर किया और बाहर आ गया। स्टेशन के इतने भीड़ भरे माहौल में भी मुझे उसके अलावा कुछ न सूझ पड़ रहा था। ऐसा लगता कि समय यहीं आकर ठहर जाए और वो कभी भी मुझसे दूर न जाए बस हमेशा ऐसे ही मेरे सामने रहे। वह खिड़की पर अपनी कलाई के उपर ठोड़ी रख गुमसुम सी रेल्वे की पातों को निहारते हुए जाने कौन से विचारों में खोई हुई थी कि अचानक बजी विसिल ने उसकी तन्द्रा को तोड़ा और गाड़ी आहिस्ता आहिस्ता अपने गन्तव्य की ओर खिसकने लगी। मैंने देखा जैसे ही उसने विदाई स्वरूप अपना हाथ मिलाने के लिए ही मेरी ओर बढ़ाया ही था कि बहुत रोकने पर भी उसकी आंखें झील सी छलछला पड़ीं। मैं भी उसे देख असंयत सा हो गया और मेरी आंखों की कोरे भी उसी की भांति गीली हो आई थीं। सहसा उसने अपने हाथ में पकड़ा रूमाल मेरी ओर बढ़ाते हुए बुझे स्वर मेें कहा- इसे हमेशा अपने पास सम्हाल कर रखना ये तुम्हें इन लम्हों के साथ सदा मेरी याद दिलाता रहेगा ! अल्विदा !

मैंने सोचा था मैं उसकी तरफ से शायद निरूत्तर ही रह जाऊंगा। लेकिन आज उसके इन शब्दों ने उसके मन की सारी भावनाओं को खोल के रख दिया था। गाड़ी अब तक पूरी रफ्तार पकड़ चुकी थी उसका हाथ शून्य में निरन्तर हिलते हुए मुझसे विदा ले रहा था । मैं उसके शब्दों को मन में लिए रूमाल को मुट्ठी में भींचते हुए अभिभूत हुए जा रहा था मानो रूमाल नहीं पूरा जहान मेरे हाथों में आ गया हो। रेल की पातों पर उसकी गति से मानों एक रेखा सी खींंच र्दी थी और ऐसा लग रहा था कि मेरे हृदय पर किसी ने जीवन के हस्ताक्षर कर दिए हों .....!

उसके जाने के कुछ दिनों बाद उसका पत्र मिला। इसमें उसने अपने मन की हर बात को मेरे सामने खुली किताब की तरह रख दिया था। मैंने जब इसे पढ़ा तो यकीन ही नहीं हुआ मैं अपने जीवन की उस खुशी को पा लूंगा जिसकी मैंने हर लम्हा कल्पना की थी। उसके खत को न जाने मैंने कितनी बार पढ़ा और बेखुदी में लगातार पढ़ता ही चला गया हर बार ये मुझे नया सा लगता।
एक लम्बे अन्तर्द्वंद्व के बाद मैंने अपना प्र्र्रस्ताव घरवालों के सामने रख दिया और मां को मनाया कि वो उसके घरवालों से मिलकर मेरे लिए मधु का हाथ मांगे। मां की बात को पिताजी भी कभी नहीं टालते थे। इसी के चलते कुछ दिनों बाद घरवाले मेरा प्रस्ताव लेकर मधु के यहां गये। लेकिन जैसा कि बड़े लोगों का अमूमन स्वभाव होता है, उन लोगों ने तुरन्त जवाब न देते हुए कहा कि वे इस बारे में आपस में मंत्रणा कर जैसा भी होगा हमें पत्र के ज़रिये इत्तिला करेंगें। मां को भी मधु बहुत अच्छी लगती थी वो उसे खोना नहीं चाहती थी इसीलिए मां अक्सर कहा करती थी कि वो लोग बड़े भाग्यशाली होंगे, जिस घर की ये शोभा होगी। इसीलिए वो बड़े अरमानों के साथ प्रस्ताव लेकर गयी थी। वापसी पर मैंने उसके चेहरे पर पड़ी अनुभवों की लकीरों पर उसकी खिन्नता के भावों को पढ़ने की काशिश की, जो किसी अनहोनी की ओर इशारा कर रहे थे। मां के मन की खामोशी मुझे तुफान के पहले सी खामोशी लगी वो किसी से बात नहीं कर रही थी। मैंने आशंकित भाव से उससे पूछ ही लिया मां तू इतनी चुप क्यों है ? मां ने चुप्पी तोड़ते हुए मेरे सवाल पर ही उसका सवाल धरते हुए कहा कि तू क्या सोचता है, वो तेरे बारे में सोचेंगे !

बहुत दिनों बाद मधु के पिता का एक संक्षिप्त सा पत्र मिला जिसमें उन्होंने हमारे पुराने संबंधों एवं परिवार का मान रखते हुए ऐसा प्रस्ताव रखा जो हम लोगों के लिए बिल्कुल अप्रत्याशित था। उनके इस बेहुदा प्रस्ताव से मेरे तो मानों पांव के नीचे से जमीन ही खिसक गई हो। मुझे तो कम से कम मधु से ऐसी आशा नहीं थी । मैं अपनी मां को बेहद चाहता था और वो भी घर का छोटा होने के कारण मुझसे कुछ ज्यादा ही स्नेह करती थी, वो मुझे एक क्षण के लिए भी दुखी नहीं देख सकती थी। लेकिन उसके चाहने या न चाहने से क्या होता है, होता तो वही है जो विधि ने हमारे लिए पहले से ही रच रखा होता है। यदि ऐसा न होता तो शायद ही दुनिया में कोई दुखी होता क्योंकि कौन से मां-बाप अपने बच्चों के दामन को संसार की हर खुशी से सराबोर करना नहीं चाहते। उन लोगों ने मधु का हाथ मेरे हाथ में इस शर्त पर देने की बात कही थी कि मैं उन्हीं के शहर में रहकर मधु के पिताजी के कारोबार में उनका हाथ बटाऊं। जिसका सीधा सा अर्थ था कि मैं अपना घर, अहम और अपना अस्तित्व सब कुछ छोड़कर केवल उन लोगों का ही होकर रह जाऊँ। जो मेरे लिए असंभव था। मैं उनके इस बेहुदा प्रस्ताव के बाद बेहद खिन्न रहने लगा। मैं अपने घरवालों को छोड़कर, मधु के लिए सबकुछ छोड़ सकता था। जिन लोगों ने मेरे लिए सब कुछ किया भला मैं उन्हें कैसे छोड़ सकता था! उन लोगों को भी ऐसा प्रस्ताव रखने के पहले सोचना था। इंसान की हैसियत उसके धन से नहीं उसके मन और आदर्शो से तौलना चाहिए। मैं उनके इस प्रकार के रवैये से दुखी एवं आक्रेाशित था। इसके बाद मुझे सब कुछ बेहद नीरस और बेमानी सा लगने लगा था न ऑफिस में और न ही घर पर मेरा मन लगता। कभी कभी इंसान की जिन्दगी में खुशियां जितनी तेजी से आती हैं, लौट भी वैसे ही जाती हैं।

कुछ दिनों बाद मेरे नाम उसका पत्र आया। इस पत्र को पढ़ने का मन ही न कर रहा था फिर भी बुझे हुए मन से मैंने उसे खोल एक सांस में ही पढ़ डाला, उसमें जो कुछ था वो मेरे लिए कल्पनातीत और कष्टदायी था, मधुलिका का विवाह उसकी उम्र से काफी बड़े एक साफ्टवेयर इंजीनियर से हो रहा था। जैसा कि आम तौर पर होता है उसने भी मुझे बेहद दिलासा और कसमें देते हुए अपना अतीत भूल जाने का कहा। पत्र के साथ जैसे मेरी हंसी उड़ाता हुआ उसकी शादी का कार्ड भी रखा था। जो मेरे जीवन की खुशी के अध्याय पर विराम चिह्न जैसा था। इस सारे घटनाक्रम के चलते चलाते समय अपनी नियत गति से आगे बढ़ा चला जा रहा था। एक आम अंग्रेजी की कहावत "टाइम इज़ ग्रेट हीलर" की तर्ज पर, समय मेरे हर ज़ख्म को धीरे धीरे भर ही रहा था कि अचानक एक दिन वो मुम्बई के दादर स्टेशन पर मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैं हैरत से उसे देखता ही रह गया। हालांकि समय ने उसके चेहरे पर उसकी हर त्रासदी के निशानों की मोहर लगा दी थी, वो अपने दो बच्चों को साथ लिए शायद मुम्बई से कहीं बाहर जा रही थी। इस बहुत ही क्षणिक मुलाकात में वो मुझसे बेहद अपनत्व के साथ मिली। उसने मेरे और घरवालों के बारे मेंे बड़ी जिज्ञासा के साथ बड़े विस्तारपूर्वक पूछा। मैंने भी बड़ी सरलता से उसके सारे सवालों का जवाब दे दिया कि मैं यही मुम्बई में जॉब कर रहा हूं वगैरह वगैरह। मैंने उसे यह भी बताया कि उसके जाने के बाद मैंने वो सबकुछ छोड़ दिया जो उससे या उसकी यादोंे से वाबस्ता थां। हां अभी शादी तो नहीं की है लेकिन जीवन में तुम जैसी कोई लड़की फिर टकरा गई तो नये सिरे से सोचूंगा। उसने आज भी मुझ पर भरोसा करते हुए एक अच्छे दोस्त की तरह उसके बारे में वो सब कुछ बताया जो कोई किसी अपने को बताता है। इसके बाद वो ये वायदा करके चली गई कि वो मेरी शादी में बुलाने पर जरूर आएगी।

उससे मुलाकात के कुछ दिनांे बाद संयोग से होली की छुट्टी पर मैं अपने घर आया हुआ था। मेरे आने से मां बेहद खुश थी मुझे शादी के बंधन में बांधने की योजना बनाा रही थी। मैंने अपनी पीड़ा को उससे छिपाते हुए उसका मन रखते हुए हंसते हुए कहा- मां मुझसे कौन शादी करेगा। पहले ही तो मैं अस्वीकारा जा चुका हूं। मां ने अपनी अन्तरपीड़ा को बड़ी सहजता से दबाते हुए उसके चेहरे पर एक कृत्रिम मुस्कान लाते हुए कहा- प्रियेश, भला तुझे कोैन नापसंद करेगा तूने तो केवल हमारी खुशी, हमारे स्नेह के प्रतिफल में अपने सारे अरमानों को एक तरफ रख दिया। मुझे हमेशा तुझ पर गर्व रहा है और रहेगा। मां की यही बातें मेरे जीवन का सम्बल रही हैं।
टेशू के फूलों का केसरिया रंग चारों ओर छा चुका था प्रकृति जैसे फागुन मास का स्वागत, धरती को एक दुल्हन की तरह सजाकर करना चाहती हो। ये सब देख मेरी आंखों के आगे मेरा पूरा अतीत छाने लगा। आज होली होने से सारा माहौल रंगमयी था । फाग के गीतों की धुन से वातावरण गूंज रहा था। पुराने दोस्तों का सुबह से मेरे घर पर तांता सा लगा हुआ था। लेकिन मैंने अपने सभी दोस्तों से क्षमा मांगी कि मैं बहुत दिनों बाद घर आया हूं इसलिए मैं आज का दिन उन्हीं के साथ बिताउंगा। सच तो यह था कि में आज मैं घर पर रहकर अपने अतीत के उन पलों में खो जाना चाहता था जोे पल होली के दिन मधु ने मेरे साथ, मेरे घर पर गुजारे थे। हालांकि मैंने कहीं पढ़ा था कि- "हमारा अतीत उतना कष्टदायी नहीं होता जितना कि उसका विचार।" लेकिन ये पीड़ा भी मुझे अपनी सी लगती है इसमें अगर एक चुभन है तो कहीं न कहीं थोड़ी सी मिठास भी है। हालांकि इतने बरस बीत जाने के बाद भी फागुन में उसकी यादें एक फांस की तरह चुभती हैं। कुछ भी हो जीवन तो अपनी गति से चलता ही रहता है, केवल इसके पात्र बदलते रहते हैं । मेरे इन्हीं विचारों में गुलज़ार जी की फिल्म "दिल से" में रेत पर लिखी गई उनकी गहरी सोच, याद हो आती है कि- कुछ लोग रेत पर लिखे नामों की तरह होते हैं, हवा का एक ही झोंका उन्हें उड़ा ले जाता है ।


–खालिद अहमद क़ुरैशी
निजी सचिव
प्रतिभूति कागज कारखाना होशंगाबाद

HOME PAGE

13 September 2006

हिन्दी सप्ताह 2006 अध्यक्ष नराकास की अपील

प्रतिभूति कागज कारखाना होशंगाबाद (म.प्र.)
अपील

आपको विदित ही है कि, संविधान सभा की बैठक में लिए गए निर्णय के फलस्वरूप १४ सितम्बर, १९४९ को हिन्दी को राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गई थी। यह सम्मान इसलिए इसे प्राप्त हुआ क्योंकि यह भारत की सर्वाधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा थी और जन-सामान्य से संवाद बनाने के लिए इसे ही सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया।
राजभाषा 'हिन्दी` में शत्-प्रतिशत कार्य करने के लिए राजभाषा अधिनियम, १९६३ और राजभाषा (संघ के प्रयोजनों के लिए प्रयोग) नियम १९७६ की रचना की गई है। इन नियमों के अधीन वर्ष २००६-०७ में शत-प्रतिशत पत्राचार हिन्दी में करने का लक्ष्य रखा गया है। इस प्रकार इन नियमों का पालन करते हुए निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करना प्रत्येक कर्मचारी का सांविधानिक उत्तरदायित्व है।
प्रतिभूति कागज कारखाना, होशंगाबाद, हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्थित है और इसके तथा नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के सदस्य कार्यालयों के अधिकांश कर्मचारी हिन्दी-भाषी हैं। अत: सभी से मेरी अपील है कि वे 'राजभाषा` का सम्मान करते हुए अपने कार्यालयीन काम-काज में ही नहीं बल्कि अपने निजी काम-काज में भी 'हिन्दी` का अधिक से अधिक प्रयोग करें तथा निम्न बातों का अनुसरण करें-
१. सभी अधिकारी अपना दैनिक कार्य स्वयं हिन्दी में करें तथा कम से कम हस्ताक्षर हिन्दी में करना प्रारम्भ करें जिससे उनके अधीनस्थ कर्मचारी भी प्रोत्साहित हो सकें।
२. 'क` और 'ख` क्षेत्रों को अधिक से अधिक पत्र/ फेक्स 'हिन्दी` में भेजे जावें।
३. सभी फाइलों पर टिप्पणियाँ आदि 'हिन्दी` में लिखी जावें।
४. कम्प्यूटरों पर हिन्दी का प्रयोग अधिकाधिक रूप से किया जावे।
५. बैठकों में अधिकांश चर्चा हिन्दी में हो।
प्रतिभूति कागज कारखाना, होशंगाबाद के समस्त कर्मचारियों तथा अधिकारियों में अपना काम राजभाषा हिन्दी में करने के प्रति सजगता बढ़ाने के उद्देश्य से इस वर्ष भी दिनांक १४ सितम्बर २००६ को प्रमुखता देते हुए 'हिन्दी दिवस` तथा इसी दिन से आरम्भ कर दिनांक २१ सितम्बर २००६ तक 'हिन्दी सप्ताह समारोह` आयोजित किया जा रहा है। इस अवधि में आयोजित की जाने वाली प्रतियोगिताओं एवं कार्यक्रमों का विवरण अलग से प्रसारित किया जावेगा।
मैं, उक्त समारोह में आयोजित कार्यक्रमों की सफलता की कामना करता हूँ और मुझे आशा ही नहीं बल्कि विश्वास है कि आप सभी अपना कार्यालयीन कार्य 'हिन्दी` में करेंगे तथा समारोह के कार्यक्रमों में भाग लेंगे।
-बी.के.पाठक
महाप्रबंधक एवं अध्यक्ष,
नराकास
होशंगाबाद
दिनांक- ०७.०९.२००६

09 September 2006

पंजाब नेशनल बैंक, होशंगाबाद (संदेश)


हिन्दी माह 2006 के अवसर पर महाप्रबन्धक (अंचल) का संदेश

प्रिय साथियों !
हिन्दी माह के शुभारम्भ के अवसर पर मैं आप सबको बधाई देता हूँ।
देश की आजादी के ५९ वर्ष पूरे हो चुके हैं। लोकतांत्रिक परम्पराओं और मर्यादाओं का बिर्वहन करते हुए हमने छह दशक व्यतीत कर लिए। संस्कृति और भाषाओं के मामले में हिन्दी हमारे देश की सर्वाधिक प्रचलित भाषा है। इसलिए हिन्दी ने राष्ट्रभाषा और फिर राजभाषा का दर्जा पाया है। १४ सितम्बर १९४९ को संविधान सभा द्वारा सर्वसम्मति से लिए गए निर्णय के फलस्वरूप हिन्दी राजभाषा के रूप में पदासीन हुई। इसी उपलक्ष में प्रतिवर्ष १४ सितम्बर का दिन ``हिन्दी दिवस'' के रूप में मनाया जाता है।
सम्प्रेषण और सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी ने अपने उत्तरादायित्व को इतनी खूबी से निभाया कि इसका प्रयोग करने वाले लगभग ५० करोड़ लोगों के साथ, यह विश्व की सार्वाधिक बोली जाने वाली दस शीर्ष भाषाओं मे से एक है। इस तरह से हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकमत का सम्मान करते हुए, सबकी सहमति से राजभाषा हिन्दी की विकास यात्रा सहज और निर्बाध गति से जारी है।
राजभाषा हमारी राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान है और बैंक के संस्थापक लाला लाजपत राय जैसे महान देश-भक्त के उत्तराधिकारी के रूप में बैंक का हर कर्मचारी राष्ट्र की पहचान के साथ जुड़ी हर चीज़ के संरक्षण और विकास के लिए कटिबद्ध है। बैंक के ग्राहकों और निवेशकों के रूप में देश के करोड़ों लागों का विश्वास हमें लगातार आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। वस्तुत: व्यावसायिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में हिन्दी ने प्रारम्भ से ही अंत्यत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हमे इस बात का गर्व है कि हमने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन भलीभाँति किया है। हमारे अंचल में हिन्दी के प्रयोग को भारत सरकार के गृह मत्रांलय राजभाषा विभाग तथा प्रधान कार्यालय ने सराहा है एवं समय-समय पर श्रेष्ठ कार्य निष्पादन के लिये पुरस्कृत किया है। नगर स्तर पर गठित राजभाषा कार्यान्वयन समितियों ने भी हमारे कार्यलयों को लगतार पुरस्कृत किया है। हाल ही में हमारे कार्यालय को नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति भोपाल द्वारा वर्ष २००४ का द्वितीय तथा वर्ष २००५ का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ है। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति जैसी व्यापक गतिविधियों वाली संस्थाओं ने हमारी राजभाषा के प्रति प्रतिबद्धता को पर्याप्त सम्मान प्रदान किया है। व्यक्तिगत स्तर पर भी हमारे अंचल की कई प्रतिभाओं ने राजभाषा के क्षेत्र में राज्य और राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार प्राप्त किये हैं।मैं आशा करता हूँ कि अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए हमारी उपलब्धियों का ये सिलसिला कभी नहीं थमेगा।
मैं अंचल के समस्त स्टाफ सदस्यों से यह अपेक्षा करता हूँ कि वे अपना अधिकतम कार्य हिन्दी में करें। शाखाओं में कार्यरत अधिकारियों/ कर्मचारियों से जनता का सीधा सम्पर्क होता है अत: जन-समान्य को उनकी भाषा में ही सर्वोत्तम सेवाएँ प्रदान करें। इससे ग्राहक अधिक सुविधा और सहजता महसूस करेगा तथा बैंक के साथ उसका जुड़ाव भी गहरा होगा।
शुभकामनाओं सहित।

आपका-

एन.सी.जैन
महाप्रबन्धक(अंचल)
प.नै.बैंक(मध्यप्रदेश)

15 April 2006

हिन्दी सप्ताह की एक झलक










01 December 2005

संयुक्त हिन्दी कार्यशाला (20 एवं 21 मई 2005)

प्रतिभूति कागज कारखाना होशंगाबाद में देशभर के मुद्रणालयों तथा टकसालों के कर्मचारियों की द्वि–दिवसीय हिन्दी कार्यशाला का शुभारम्भ २० मई २००५ को हुआ। मुख्य अतिथि श्री डी॰एम॰ शर्मा उप महाप्रबंधक ने दीप प्रज्ज्वलित कर किया। कार्यशाला के उद्देश्य पर चर्चा करते हुए इसके सफल होने की कामना मुख्य अतिथि ने की। इस अवसर पर श्री व्ही॰पी॰तिवारी, उप प्रबंधक संरक्षा तथा पर्यावरण कार्यशाला को सम्बोधित किया। कार्यशाला का प्रथम व्याख्यान वर्तनी और मानक भाषा पर केन्द्रित था। प्रतिभागियों ने इसे काफी रुचि के साथ सुना और पूरी सहभागिता की। डॉ॰ जगदीश व्योम ने व्यावहारिक रूप में होने वाली अशुद्धियों पर प्रकाश डाला जिसे सभी ने सुना, सराहा और अपनी आशंकाओं को दूर किया। इस अवसर पर कई ऍसे शब्दों पर प्रकाश डाला गया जिन्हे प्रायः गलत लिखा जाता है। प्र॰का॰का॰ होशंगाबाद के उप प्रबंधक श्री यशपाल सिंह रवि कम्प्यूटर पर प्रयुक्त होने वाली हिन्दी पर इस कार्यशाला मे चर्चा करेंगे। कार्यशाला को श्री एस॰ के॰ खण्डेलवाल, श्री ए॰के॰सिंह एवं श्री एम॰एल॰ जोशी भी सम्बोधित करेंगे। कार्यशाला में भाग लेने वाले प्रतिभागी हैं— श्रीमती एम॰राज्यलक्ष्मी, श्रीमती पी॰करुणश्री, श्री पी॰ ईश्वर जितेन्द्र, श्री दयानंद ठाकुर हैदराबाद,
श्री एस॰ एस॰ पगारे, श्री अर्जुन वी॰ गवित नासिक रोड, श्री शशि राम, प्रमोद कुमार द्विवेदी नोएडा, श्री ए॰ के॰ चौबे देवास, श्री रजनीश रंजन सहाय, श्रीमती गीता सुधीर प्र॰का॰का॰ होशंगाबाद।
***

28 October 2005

राजभाषा वर्गवार क्षेत्र मानचित्र

17 September 2005

केन्द्रीय विद्यालय प्र.का.का.होशंगाबाद



हिन्दी सप्ताह समारोह - 2005
***

दिनांक- 14-9-05
उद्घाटन
हिन्दी काव्य पाठ प्रतियोगिता
***
16-9-05
त्वरित भाषण प्रतियोगिता
***
17-9-05
एकल गायन प्रतियोगिता
***
19-9-05
वाद-विवाद प्रतियोगिता

हिन्दी सप्ताह समारोह :: कार्यक्रम

हिन्दी सप्ताह समारोह का उद्घाटन एवं राजभाषा संवाद जालघर का लोकार्पण

( दैनिक समाचार पत्र राज एक्सप्रेस भोपाल दिनांक- 17-9-2005)



13 September 2005

कुछ फोटो













मुखपृष्ठ पर पहुँचें

हिन्दी सप्ताह समारोह - 2005

प्रतिभूति कागज कारखाना होशंगाबाद

( राजपत्रित अधिकारियों की संयुक्त हिन्दी कार्यशाला- 2002)


(हिन्दी सप्ताह - 2005)
शुभारम्भ- समारोह दिनांक- 14-09-2005 समय 10 बजे प्रात:

व्याख्यान- डॉ० जगदीश व्योम विषय- 'सरकारी काम काज में राजभाषा हिन्दी का प्रयोग`
***
लघु चित्र कहानी प्रतियोगिता- दिनांक- 14-09-2005 समय 03 बजे अपराह्न
***
हिन्दी निबंध प्रतियोगिता- दिनांक- 15-09-2005 समय 03 बजे अपराह्
विषय- (वर्गीकृत कर्मचारियों के लिए) 'हिन्दी भाषा और हमारी मानसिकता`
(वर्गीकृत कर्मचारियों के लिए) ' प्रतिभूति कागज कारखाना और हिन्दी भाषा`


***

हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता (भाग-1) दिनांक- 16-09-2005 समय 03 बजे अपराह्न

***
हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता (भाग-3) दिनांक- 17-09-2005 समय 03 बजे अपराह्न

(नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के सदस्य कार्यालयों के लिए)

***

* संयुक्त हिन्दी कार्यशाला मई - 2005


मुखपृष्ठ पर पहुँचें

11 September 2005

न.रा.का.स. के सदस्य कार्यालय

श्री बी.के.पाठक
महाप्रबंधक
प्रतिभूति कागज कारखाना
होशंगाबाद (म.प्र.)461005
दूरभाष-255259

***
श्री एस.के.उपाध्याय
प्राचार्य
केन्द्रीय विद्यालय
प्रतिभूति कागज कारखाना
होशंगाबाद (म.प्र.) 461005
दूरभाष- 255327

***
श्री जी.पी. सिंघल
शाखा प्रबंधक
केनरा बैंक
मेन रोड
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 254442

***
श्री के.एस.मूंदड़ा
शाखा प्रबंधक
सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
मंगलवारा, शराफा चौक
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 275810


***
श्री डी. टी. मसन्द
वरिष्ठ प्रबंधक
सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया
क्षेत्रीय कार्यालय
सिटी पोस्ट ऑफिस के पास
मंगलवारा
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष-07574- 275810, 275335


***

श्री जी.ए. शर्मा
शाखा प्रबंधक
स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर
शराफा चौक शाखा
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 275790


***

श्री एस. सी. नन्दन
शाखा प्रबंधक
पंजाब नेशनल बैंक
डॉ० सेठा बिल्डिंग
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 252913


***


श्री सुरजीत राय तनेजा
वरिष्ठ प्रबंधक
जिला समन्वयक
पंजाब नेशनल बैंक
डॉ० सेठा बिल्डिंग
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 254443


***

कर्नल पंकज कुमार
कमान अधिकारी
एन.सी.सी. निदंशालय
13, एम.पी.बटालियन
ओल्ड नार्मल स्कूल के पास
खर्रा घाट रोड
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष-275521


***

श्री रविन्द्र शर्मा
स्टेशन प्रबंधक
पश्चिम मध्य रेल
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 253143


***
श्री आर.एम. बारापात्रे
सहायक अभियंता (वि)
के.लो.नि.विभाग, फेस-3
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 255649


***

श्री शशिन् राय
क्षेत्रीय प्रचार अधिकारी
क्षेत्रीय प्रचार कार्यालय
74/9-12, आनन्द नगर
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 07574- 254462


***

श्री प्रभात कुमार
शाखा प्रबंधक
भारतीय जीवन बीमा निगम
मीनाक्षी टाकीज परिसर
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 254859, 253076


***

श्री अनिल टीगरा
वरिष्ठ क्षेत्रीय प्रबंधक
इंडियन फर्टिलाइजर कं.लि. (इफ्को)
क्षेत्रीय कार्यालय, मीनाक्षी चौराहा
227, सदर बाजार
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 252971


***

श्री एन.आर.अहिरवार
सहायक अभियंता
मध्य नर्मदा उप खण्ड क्र.-1
केन्द्रीय जल आयोग
सर्किट हाउस के पास
पानी टंकी के सामने
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 253029


***

श्री शशि कान्त सिंह
शाखा प्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
मुख्य शाखा
मीनाक्षी टाकीज के पास
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 253220


***

श्री जी.आर. सुलेखिया
उप मएडल अभियंता
आप्टिकल फाइबर केबल(ओएफसी)
दूरभाष केन्द्र के ऊपर
चर्च के पास, सदर बाजार
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष-252931


***

श्री प्रदीप कुमार तिवारी
प्रभारी विभागीय अधिकारी
तारघर, कोठी बाजार
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 252421


***

श्री एम.एम.राठी
विकास अधिकारी
नेशनल फर्टिलाइजर लिमिटेड
तारघर के सामने, कोठी बाजार
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 254472

***


श्री आर.एस. यादव
अनुविभागीय अधिकारी
(एस.डी.ओ. टेलीफोन)
टी.एस.डी., पाटिल बिल्डिंग,
कोठी बाजार
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 252770


***
श्री रमेश ठाकुर
प्रवर अधीक्षक (डाकघर)
प्रधान डाकघर के ऊपर,
कोठी बाजार
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 252916


श्री जे. के. पठारिया
प्रधान डाकपाल
प्रधान डाकघर
कोठी बाजार
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 252398


***

श्री प्रकाश मनोरे
जिला समन्वयक
नेहरू युवा केन्द्र
न्यू आयुक्त कार्यालय के पास
कोठी बाजार
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 252431


श्री एम.के.शर्मा
जिला सूचना अधिकारी
राषट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र
कलेक्ट्रेट परिसर
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 253582


***

श्री अनिल गर्दे
शाखा प्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
प्रतिभूति कागज कारखाना शाखा
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 255040


***

श्री रामनरेश
सहायक अभियंता (सि.)
के.लो.नि.विभाग
प्रतिभूति कागज कारखाना
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 255304


***

श्री राजेन्द्र सिंह
के.औ.सु.बल इकाई
प्रतिभूति कागज कारखाना
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष- 255028



विभिन्न विचार

( हिन्दी भाषा के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के विचार हैं )
***

आज हिन्दी का संकट यह नहीं है कि वह अविकसित भाषा है, यह नहीं है कि उसमें ज्ञान-विज्ञान की शब्दावली नहीं है, यह नहीं है कि उसके बोलने वालों की संख्या कम होती जाती है और यह नहीं है कि विधान में उसे उचित स्थान नहीं मिला हुआ है, उसका मूल संकट यह है कि हिन्दी भाषी जन में आज चरित्र-बल नहीं रह गया है।
-डॉ० धर्मवीर भारती

***
राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वसामान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं है। मेरे विचार में हिन्दी ही ऐसी भाषा है।
-लोकमान्य तिलक

***
जब तक इस देश का राज काज अपनी भाषा में नहीं चलेगा, तब तक हम यह नहीं कह सकते कि देश में स्वराज्य है।
-मोरारजी देसाई

***
''चूँकि भारतीय एक होकर एक समन्वित संस्कृति का विकास करना चाहते हैं, इसलिए सभी भारतीयों का यह परम कर्तव्य हो जाता है कि वे हिन्दी को अपनी भाषा समझकर अपनाएँ।''
-डॉ० भीमराव अम्बेडकर

***
हिन्दी देश के बड़े हिस्से में बोली जाती है। हमें इस भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करना ही चाहिए।
-रवीन्द्रनाथ टैगोर

***
हिन्दी द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।
-महर्षि दयानन्द सरस्वती

***
देश को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा हिन्दी ही हो सकती है।
-लाल बहादुर शास्त्री

***
हिन्दुस्तान को हमें अगर एक राष्ट्र बनाना है तो राष्ट्रभाषा हिन्दी ही हो सकती है।
-महात्मा गाँन्धी

***
प्रान्तीय ईर्ष्या, द्वेष दूर करने में जितनी सहायता हिन्दी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी से नहीं।
-सुभाष चन्द्र बोस

***
हिन्दी एक जानदार भाषा है, वह जितनी बढ़ेगी उतना ही लाभ होगा।
-जवाहरलाल नेहरू

***
हमारी राष्ट्रभाषा की गंगा में देशी और विदेशी सभी शब्द मिलकर एक हो जाएँगे।
-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद

***
हिन्दी वह धागा है जो विभिन्न मातृभाषाओं रूपी फूलों को पिरोकर भारत माता के लिए सुन्दर हार का सृजन करेगी।
-डॉ० जाकिर हुसैन

***
हिन्दी देश की एकता की ऐसी कड़ी है जिसे मजबूत करना प्रत्येक भारतीय का कर्त्तव्य है।
-इन्दिरा गाँधी

***
हिन्दी अब सारे देश की राष्ट्रभाषा हो गई है। उस भाषा का अध्ययन करने और उसकी उन्नति करने में गर्व का अनुभव होना चाहिए।
-वल्लभ भाई पटेल

***
हिन्दी के बिना भारत की राष्ट्रीयता की बात करना व्यर्थ है।
-वी.वी.गिरि

***
हिन्दी सीखने का कार्य ऐसा त्याग है जिसे दक्षिण भारत के निवासियों को राष्ट्रहित में करना चाहिए।
-एनी बिसेन्ट

***
मेरे देश में हिन्दी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता।
-विनोबा भावे

***
अमरभारती की इस लाड़ली 'हिन्दी` के स्वरों में भारत की राष्ट्रीय आत्मा बोलती है।
-डॉ० सम्पूर्णानन्द

***
हिन्दी उन सभी गुणों से अलंकृत है जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में समासीन हो सकती है।
-मैथिलीशरण गुप्त

***
हिन्दी की उपेक्षा से देश का भविष्य अन्धकारमय हो जाएगा।
-महादेवी वर्मा

***
हिन्दी हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति का श्रोत है।
-सुमित्रानन्दन पन्त

***
हिन्दी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है।
-माखनलाल चतुर्वेदी

***
संस्कृत माँ, हिन्दी गृहिणी और अग्रेजी नौकरानी है।
-डॉ० कामिल बुल्के

***
हिन्दी राष्ट्रीयता के मूल को सींचती है और दृढ़ करती है।
-पुरुषोत्तमदास टण्डन

***
हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है।
-डॉ० प्रभाकर माचवे

***
***


आखिर हमें क्या कठिनाई है ?

० हिन्दी में हस्ताक्षर करने में हमें क्या कठिनाई है ?
***
० जब हिन्दी में पता लिखे हमारे व्यक्तिगत पत्र भारत में एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में पहुँच जाते हैं तो कार्यालय के पत्रों पर हिन्दी में पता लिखने में हमें क्या कठिनाई है ?
***
० जब हम कार्यालय में बातचीत हिन्दी में कर सकते हैं तो सरकारी काम हिन्दी में करने में हमें क्या कठिनाई है ?
***
० जब लेखन सामग्रियों का व्यय सरकार वहन करती है तो इस द्विभाषी रूप में छपवाने में हमें क्या कठिनाई है ?
***
० जब कार्यालय में सभी संसाधन उपलब्ध हों तो हमें हिन्दी पत्रों का जवाब हिन्दी में देने में क्या कठिनाई है ?
***
० जब हिन्दीभाषी राज्यों की सरकारें अपना सारा राजकीय कार्य हिन्दी में करती हैं तो उनके साथ पत्र -व्यवहार हिन्दी में करने में हमें क्या कठिनाई है ?
***
० जब राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3(3) को लागू करना आवश्यक है तथा इसमें किसी भी प्रकार की छूट नहीं है तो सभी संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद ऐसा करने में हमें क्या कठिनाई है ?
***
० जब सेवाकालीन प्रशिक्षण के लिए सरकार सभी सुविधाएँ उपलब्ध कराती है तथा उत्तीर्ण होने पर कई पुरस्कार प्रदान करती है तो इसे अपनाने में हमें क्या कठिनाई है ?
***
० राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को मजबूत बनाने में राजभाषा के योगदान को स्वीकार करने में हमें क्या कठिनाई है ?
***
(साभार : इस्पात भाषा भारती, अक्तू०-दिस० 1999)
***

राजभाषा वंदना

करते हैं तन-मन से वंदन,
जन-गण-मन की अभिलाषा का
अभिनन्दन अपनी संस्कृति का,
आराधन अपनी भाषा का।

यह अपनी शक्ति सर्जना के
माथे की है चन्दन रोली
माँ के आँचल की छाया में
हमने जो सीखी है बोली

यह अपनी बँधी हुई अँजुरी,
ये अपने गंधित शब्द सुमन
यह पूजन अपनी संस्कृति का
यह अर्चन अपनी भाषा का ।

अपने रत्नाकर के रहते
किसकी धारा के बीच बहें
हम इतने निर्धन नहीं कि
वाणी से औरों के ऋणी रहें

इसमें प्रतिबिम्बित है अतीत
आकार ले रहा वर्तमान
यह दर्शन अपनी संस्कृति का
यह दर्पन अपनी भाषा का ।

यह ऊँचाई है तुलसी की
यह सूर-सिन्धु की गहराई
टंकार चन्द वरदाई की
यह विद्यापति की पुरवाई

जयशंकर की जयकार
निराला का यह अपराजेय ओज
यह गर्जन अपनी संस्कृति का
यह गुंजन अपनी भाषा का ।
***
-सोम ठाकुर
***

हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ

स्वरों व्यंजनों से परिनिष्ठत, है वर्णों की माला,
शब्द-शब्द अत्यन्त परिष्कृत, देते अर्थ निराला
उच्चकोटि के भाव निहित हैं, नित प्रेरणा जगाएँ ।
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ ।।


व्यक्त विचारों को करने का, यह सशक्त माध्यम है,
देवनागरी लिपि अति सुन्दर सर्वश्रेष्ठ उत्तम है
इसकी हैं बोलियाँ बहुत सी इसे समृद्ध बनाएँ।
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ।।


उच्चारण, वर्तनी सभी में, इसको सिद्धि मिली है,
है व्याकरण परम वैज्ञानिक, पूर्ण प्रसिद्धि मिली है
इसके अंदर सम्प्रेषण का अनुपमेय गुण पाएँ ।
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ ।।


हिन्दी सरल, सुबोध, सरस है नहीं कहीं कठिनाई,
जो भी इसे सीखना चाहे, लक्ष्य मिले सुखदाई
काम करें हम सब हिन्दी में इसकी ख्याति बढ़ाएँ ।
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ ।।


कवियों ने की प्राप्त प्रतिष्ठा, रच कविता कल्याणी,
गूँज रही है अब भी उनकी, पावन प्रेरक वाणी
हम इसकी साहित्य-सम्पदा, भूल न किंचित जाएँ ।
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ ।।


ओजस्वी कविताएँ लिखकर अमर चन्दबरदाई,
अमिट भक्ति की धारा तुलसी ने सर्वत्र बहाई
सूर, कबीर, जायसी की भी कृतियाँ हृदय लुभाएँ ।
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ ।।


केशव, देव, बिहारी, भूषण के हम सब आभारी,
रत्नाकर, भारतेन्दु उच्च पद के सदैव अधिकारी
महावीर, मैथिलीशरण, हरिऔध सुकीर्ति कमाएँ ।
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ ।।


पन्त, प्रसाद, महादेवी का योगदान अनुपम है,
देन 'निराला` की हिन्दी को परम श्रेष्ठ उत्तम है
दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी राष्ट्र-भक्ति उपजाएँ ।
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ ।।


करें प्रयोग नित्य हिन्दी का, रक्खें अविचल निष्ठा,
ऐसा करें प्रयास कि जिससे, जग में मिले प्रतिष्ठा
हिन्दी का ध्वज अखिल विश्व में मिलजुल कर फहराएँ।
आओ आओ हिन्दी भाषा हम सहर्ष अपनाएँ।।
***


-विनोद चन्द्र पाण्डेय 'विनोद`
***

09 September 2005

राजभाषा विभाग






माँ भारती के भाल की शृंगार है हिन्दी

माँ भारती के भाल की शृंगार है हिन्दी
हिन्दोस्तां के बाग की बहार है हिन्दी
***
घुट्टी के साथ घोल के माँ ने पिलाई थी
स्वर फूट पड़ रहा, वही मल्हार है हिन्दी
***
तुलसी, कबीर, सूर औ रसखान के लिए
ब्रह्मा के कमण्डल से बही धार है हिन्दी
***
सिद्धान्तों की बात से न होएगा भला
अपनाएँगे न रोज के व्यवहार में हिन्दी
***
कश्ती फँसेगी जब कभी तूफानी भँवर में
उस दिन करेगी पार, वो पतवार है हिन्दी
***
माना कि रख दिया है संविधान में मगर
पन्नों के बीच आज तार-तार है हिन्दी
***
सुन कर के तेरी आह 'व्योम` थरथरा रहा
वक्त आने पर बन जाएगी तलवार ये हिन्दी
***
-डॉ॰ जगदीश व्योम
***