11 September 2005

राजभाषा वंदना

करते हैं तन-मन से वंदन,
जन-गण-मन की अभिलाषा का
अभिनन्दन अपनी संस्कृति का,
आराधन अपनी भाषा का।

यह अपनी शक्ति सर्जना के
माथे की है चन्दन रोली
माँ के आँचल की छाया में
हमने जो सीखी है बोली

यह अपनी बँधी हुई अँजुरी,
ये अपने गंधित शब्द सुमन
यह पूजन अपनी संस्कृति का
यह अर्चन अपनी भाषा का ।

अपने रत्नाकर के रहते
किसकी धारा के बीच बहें
हम इतने निर्धन नहीं कि
वाणी से औरों के ऋणी रहें

इसमें प्रतिबिम्बित है अतीत
आकार ले रहा वर्तमान
यह दर्शन अपनी संस्कृति का
यह दर्पन अपनी भाषा का ।

यह ऊँचाई है तुलसी की
यह सूर-सिन्धु की गहराई
टंकार चन्द वरदाई की
यह विद्यापति की पुरवाई

जयशंकर की जयकार
निराला का यह अपराजेय ओज
यह गर्जन अपनी संस्कृति का
यह गुंजन अपनी भाषा का ।
***
-सोम ठाकुर
***

0 Comments:

Post a Comment

<< Home